रावण और भगवान शिव: तीन रहस्यमयी स्थल और अनकही कथाएँ
हिन्दू धर्म के पौराणिक ग्रंथों में रावण एक ऐसा पात्र है जो एक ओर असीम शक्ति, विद्वता और तपस्या का प्रतीक है तो दूसरी ओर अभिमान, क्रोध और विनाश का प्रतिनिधि भी। लेकिन एक विशेष पहलू जो उसे विशिष्ट बनाता है, वह है भगवान शिव के प्रति उसकी गहन भक्ति। रावण और शिवजी से जुड़ी अनेक कथाएँ भारतीय संस्कृति में प्रचलित हैं। विशेष रूप से तीन पवित्र स्थानों – कैलाश पर्वत, शिवलिंग स्थापना और कुरुक्षेत्र – से जुड़ी घटनाएँ रावण की शिवभक्ति का प्रमाण देती हैं।
कैलाश पर्वत: शिव के ध्यान में बाधा और रावण का अहंकार

कहा जाता है कि एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से
यात्रा कर रहा था। मार्ग में एक विशेष वन क्षेत्र आया, जहाँ एक विशाल पर्वत पर भगवान शिव ध्यानमग्न स्थिति में विराजमान थे। रावण का विमान वहां से आगे नहीं बढ़ पा रहा था।
यह स्थान था पावन कैलाश पर्वत। नंदी ने रावण को रोका और कहा कि यह स्थान भगवान शिव के ध्यान का केंद्र है और इस क्षेत्र से किसी भी विमान का गुजरना वर्जित है। रावण को यह सुनकर अपमान महसूस हुआ और उसने क्रोधित होकर नंदी का अपमान कर दिया। फिर उसने पर्वत को अपने बल से उठाने की चेष्टा की।
इस पर भगवान शिव ने रावण की इस मूर्खता को समझाते हुए अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया जिससे रावण उसी के नीचे दब गया। वर्षों तक रावण वहीं फंसा रहा और अंततः उसने शिव स्तुति की रचना की – जिसे हम आज “शिव तांडव स्तोत्र” के नाम से जानते हैं। इस स्तोत्र ने भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्होंने रावण को मुक्त कर दिया। तभी से रावण भगवान शिव का अनन्य भक्त बन गया।
शिवलिंग की स्थापना: रावण की भक्ति और लंकेश्वर बनने की इच्छा
एक अन्य प्रसंग में रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने हेतु घोर तपस्या प्रारंभ की। उसने अपने नौ सिरों की आहुति दी और जब वह अपना दसवाँ सिर चढ़ाने ही वाला था, तभी शिवजी प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा।
रावण ने निवेदन किया – “हे प्रभु! मुझे आपका आत्मस्वरूप शिवलिंग दीजिए जिसे मैं लंका में स्थापित कर सकूँ।”
भगवान शिव ने रावण को दो शिवलिंग दिए, लेकिन साथ ही एक शर्त रखी – “इन्हें किसी भी परिस्थिति में भूमि पर मत रखना, अन्यथा ये वहीं स्थापित हो जाएंगे।”
रावण दोनों शिवलिंग लेकर लंका की ओर चला। मार्ग में जब वह गोकार्ण क्षेत्र पहुँचा, तो उसे लघुशंका की आवश्यकता पड़ी। उसने अपने सारथी बेजु को शिवलिंग पकड़ने के लिए कहा और स्पष्ट निर्देश दिया कि इन्हें ज़मीन पर न रखें।
लेकिन जैसे ही रावण विलंबित हुआ, बेजु से शिवलिंग हाथ से गिर गया और वहीं स्थिर हो गया। यही स्थान गोकार्ण महाबलेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कुरुक्षेत्र: शिवलिंग की पूजा और रावण की तपस्या
महाभारत काल के युद्धस्थल कुरुक्षेत्र से भी रावण का एक गहरा संबंध जुड़ा है। त्रेतायुग में रावण और उसका पुत्र मेघनाद इस क्षेत्र से गुज़रते हुए मृत्यु से बचने का उपाय खोज रहे थे। तभी उन्हें ज्ञात हुआ कि यहां स्थित शिवलिंग पर तपस्या करने से मृत्यु पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
रावण ने यहाँ शिव की तपस्या प्रारंभ की और शिवलिंग की पूजा अर्चना में लग गया। यह वही स्थान है जहाँ अब महाकालेश्वर मंदिर स्थित है। यहीं पर द्वापर युग में जयद्रथ ने भी तपस्या की थी।
रावण के तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए, लेकिन रावण ने यह अनुरोध किया कि इस घटना का कोई गवाह न हो। इसलिए भगवान शिव ने नंदी को दूर कर दिया और उसी समय से इस शिवलिंग की पूजा बिना नंदी की प्रतिमा के की जाती है।