आप पूरी श्रद्धा से पूजा घर में बैठते हैं, हाथ में माला पकड़ते हैं और आँखें बंद करके अपने इष्टदेव का नाम जपना शुरू करते हैं। “हरे कृष्ण, हरे कृष्ण…”, “श्री राम, जय राम…”, “ॐ नमः शिवाय…”।
लेकिन ये क्या?
दो मिनट भी नहीं बीतते और मन अपनी यात्रा पर निकल पड़ता है। कभी ऑफिस की मीटिंग याद आती है, तो कभी किसी रिश्तेदार की कही हुई बात चुभने लगती है। कभी भविष्य की चिंता सताती है, तो कभी अतीत की कोई गलती कचोटती है। आप माला तो फेर रहे होते हैं, लेकिन आपका मन दुनिया जहान का चक्कर लगाकर वापस आ जाता है।
अगर यह आपकी भी कहानी है, तो आप अकेले नहीं हैं। यह हर साधक के जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। हम सबने सुना है कि कलियुग में केवल हरि-नाम ही भवसागर से पार लगा सकता है। पर सवाल यह है कि नाम जप में मन क्यों भटकता है और बार-बार पाप और व्यर्थ के विचारों की ओर क्यों भागता है?
इस गहरे प्रश्न का उत्तर वृन्दावन के संत, श्री प्रेमानंद जी महाराज ने अपने सत्संगों में बहुत ही सरल और व्यावहारिक तरीके से समझाया है। चलिए, उनके ज्ञान के प्रकाश में इस समस्या की जड़ तक चलते हैं और इसका समाधान खोजते हैं।
समस्या की जड़: मन एक मैला बर्तन है
प्रेमानंद जी महाराज एक बहुत सुन्दर उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं, “कल्पना कीजिये कि आपके पास एक बर्तन है जिसमें वर्षों से गंदा पानी भरा हुआ है। अब आप उस गंदे पानी को फेंककर उसमें साफ़ पानी भरना चाहते हैं। क्या एक बार साफ़ पानी डालने से वह बर्तन पूरी तरह शुद्ध हो जाएगा? नहीं!”
बर्तन की दीवारों पर काई और गंदगी की परतें जम चुकी हैं। उसे बार-बार माँजना पड़ेगा, रगड़ना पड़ेगा, तब जाकर वह पूरी तरह साफ़ होगा।
हमारा मन भी ठीक इसी बर्तन की तरह है। इसमें केवल इस जन्म के ही नहीं, बल्कि जन्म-जन्मान्तर के पाप, वासनाएं, इच्छाएं, क्रोध, लोभ और अहंकार की मैल जमी हुई है। ये ‘संस्कार’ बहुत गहरे हैं। जब हम नाम जप करना शुरू करते हैं, तो हम उस मैले बर्तन में अमृत रूपी हरि-नाम डालना शुरू करते हैं। यह नाम-जप उस मैल को काटना तो शुरू कर देता है, लेकिन इस प्रक्रिया में समय और धैर्य लगता है। कुछ महीनों या एक-दो साल की साधना से जन्मों की जमी हुई मैल पूरी तरह साफ़ नहीं हो सकती।
मन के भटकने के मुख्य कारण और महाराज जी के समाधान
1. जप ज़बान से हो रहा है, हृदय से नहीं
महाराज जी कहते हैं कि सबसे बड़ी गलती हम यह करते हैं कि हमारा जप केवल जिह्वा (जीभ) पर होता है, हृदय तक नहीं पहुँचता। यह एक यांत्रिक क्रिया (Mechanical Action) बनकर रह जाता है। जब तक नाम की ध्वनि हमारे हृदय के तारों को नहीं झंकृत करेगी, तब तक मन की शांति और स्थिरता संभव नहीं है।
समाधान: जप को महसूस करें। हर नाम के साथ यह भाव लाएं कि आप सीधे अपने प्रभु को पुकार रहे हैं। जैसे एक बच्चा अपनी माँ को पुकारता है, उसी आतुरता और प्रेम से जप करें। शुरुआत में यह मुश्किल लगेगा, पर अभ्यास से यह भाव गहरा होता जाएगा।
2. अशुद्ध संगति और जीवनशैली
आप एक घंटा नाम जप करते हैं, लेकिन बाकी के 23 घंटे ऐसे लोगों के साथ बिताते हैं जो निंदा, चुगली, भोग-विलास और सांसारिक बातों में लिप्त रहते हैं। आप ऐसा कंटेंट देखते या पढ़ते हैं जो आपकी वासनाओं को भड़काता है। ऐसे में मन कैसे शुद्ध होगा?
समाधान: सत्संग का आश्रय लें। सत्संग का अर्थ केवल संतों के प्रवचन सुनना नहीं है, बल्कि ‘सत्’ का ‘संग’ करना है। अच्छी किताबें पढ़ें, महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ें, और ऐसे लोगों से दूर रहें जो आपकी साधना में बाधा डालते हैं। आपकी संगति ही आपके विचारों की दिशा तय करती है।
3. कर्मों का हिसाब (प्रारब्ध)
अध्यात्म कहता है कि हमारे जीवन में आने वाले दुःख, अशांति और बेचैनी हमारे पूर्व कर्मों (प्रारब्ध) का फल होते हैं। जब आप जप करने बैठते हैं, तो यही कर्म फल अशांत विचारों के रूप में सामने आकर आपको परेशान करते हैं।
समाधान: धैर्य रखें। प्रेमानंद जी महाराज आश्वासन देते हैं कि भगवान का नाम एक अग्नि की तरह है। आप जैसे-जैसे जप करते जाते हैं, यह नाम-अग्नि आपके बुरे कर्मों के ढेर को धीरे-धीरे जलाकर राख कर देती है। इसमें समय लगता है, इसलिए घबराएं नहीं। बस निरंतर जप करते रहें।
4. इंद्रियों की पुरानी आदतें
हमारी इंद्रियों को भोगों की आदत पड़ चुकी है। आँखों को सुन्दर रूप देखने की, कानों को अपनी प्रशंसा सुनने की, और जीभ को स्वादिष्ट भोजन की लत है। जब आप इन सबको छोड़कर मन को भगवान में लगाने की कोशिश करते हैं, तो ये इंद्रियां विद्रोह कर देती हैं। मन बार-बार अपनी पुरानी आदतों की ओर भागता है।
समाधान: मन से लड़ें नहीं, उसे समझाएं। महाराज जी कहते हैं कि मन एक छोटे बच्चे की तरह है। अगर आप उसे जबरदस्ती रोकेंगे तो वह और ज्यादा ज़िद करेगा। उसे प्रेम से समझाएं कि “हे मन, इन सांसारिक भोगों में क्षणिक सुख है और बाद में दुःख। चलो, हम भगवान के नाम का अमृत चखते हैं, जिसमें आनंद ही आनंद है।”
क्या करें जब जप में बिल्कुल मन न लगे?
यह हर साधक के जीवन का एक दौर है। कई बार निराशा घेर लेती है और लगता है कि सब व्यर्थ है। इस पर प्रेमानंद महाराज एक बहुत महत्वपूर्ण सलाह देते हैं:
“मन लगे या न लगे, जप छोड़ना नहीं है।”
यह एक दवाई की तरह है। दवाई कड़वी हो सकती है, उसे खाने का मन नहीं करता, लेकिन हम जानते हैं कि स्वस्थ होने के लिए वह ज़रूरी है। ठीक वैसे ही, नाम जप आपके मन के रोग की औषधि है। चाहे मन कितना भी विरोध करे, आपको नियम नहीं तोड़ना है। अपनी निर्धारित संख्या या समय का जप हर हाल में पूरा करें।
एक दिन यही निरंतरता और दृढ़ता आपके मन को हरा देगी और वह आपके वश में आने लगेगा। जिस दिन नाम जप में आपको पहला आँसू आएगा, समझ लेना कि आपकी साधना सही दिशा में जा रही है और अब भगवान की कृपा आप पर बरसने लगी है।
तो, नाम जप में मन क्यों भटकता है, इसका सीधा सा उत्तर है – हमारे जन्मों के गहरे संस्कार, अशुद्ध संगति, कर्मों का उदय और इंद्रियों की पुरानी आदतें। इसका समाधान ज़बरदस्ती नहीं, बल्कि प्रेम, धैर्य, निरंतरता और सत्संग है।
प्रेमानंद जी महाराज के दिखाए मार्ग पर चलकर यह समझें कि यह एक दिन की दौड़ नहीं, बल्कि एक लंबी यात्रा है। अपने प्रयासों पर संदेह न करें। हर एक नाम जो आप ले रहे हैं, वह आपके आध्यात्मिक बैंक खाते में जमा हो रहा है और आपके कर्मों की मैल को काट रहा है, भले ही आपको तुरंत इसका एहसास न हो।
बस, श्रद्धा और विश्वास के साथ लगे रहिये। एक दिन आपका मन रूपी बर्तन इतना निर्मल हो जाएगा कि उसमें केवल प्रभु के प्रेम का अमृत ही छलकेगा।