जीवन में दुख क्यों आता है? यह एक ऐसा सवाल है जो हर इंसान कभी न कभी खुद से पूछता है। जब असफलताएं हमें घेर लेती हैं, जब रिश्ते टूट जाते हैं या जब कोई अपना बिछड़ जाता है, तो मन में यही ख्याल आता है – “मेरे साथ ही ऐसा क्यों?” हम सुख की कामना करते हैं, लेकिन ज़िंदगी हमें अक्सर दुख के चौराहे पर लाकर खड़ा कर देती है।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि दुख शायद उतना बुरा न हो, जितना हम उसे समझते हैं? क्या हो अगर दुख एक सजा नहीं, बल्कि एक शिक्षक हो? एक ऐसा गुरु, जो हमें जीवन के वो पाठ सिखाने आता है, जो सुख की धूप में कभी सीखे ही नहीं जा सकते।
आज हम पर्दे के पीछे झांकेंगे और उन आध्यात्मिक कारणों को जानेंगे कि आखिर जीवन में दुख का आगमन होता क्यों है। यह समझ आपके आँसुओं को एक नया अर्थ देगी और आपको पहले से कहीं ज्यादा मजबूत बनाएगी।
दुख एक सजा नहीं, एक अवसर है: 5 छिपे हुए कारण
अक्सर हम दुख को एक अनचाहे मेहमान की तरह देखते हैं। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, दुख हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने आता है।
1. आपकी असली शक्ति को जगाने के लिए
कल्पना कीजिए, आप एक शांत तालाब की तरह हैं। जब तक कोई पत्थर न फेंका जाए, आपको अपनी गहराई का अंदाज़ा ही नहीं होता। दुख वही पत्थर है। जब चुनौतियां आती हैं, तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर कितनी हिम्मत, कितना धैर्य और कितनी सहनशक्ति छिपी है। जिम में वजन उठाए बिना मांसपेशियां नहीं बनतीं, ठीक उसी तरह जीवन में दुख का वजन उठाए बिना हमारा आत्मबल और चरित्र मजबूत नहीं होता।
2. सुख का असली मोल समझाने के लिए
सोचिए, अगर दुनिया में कभी रात ही न हो, तो क्या कोई सुबह के सूरज की कीमत समझेगा? अगर कभी भूख ही न लगे, तो क्या भोजन के पहले निवाले में वो आनंद आएगा? बिलकुल नहीं। दुख वही रात है, जो हमें सुख के सूरज की अहमियत बताती है। जब हम कठिनाइयों के दौर से गुजरते हैं, तभी हमें छोटी-छोटी खुशियों की असली कीमत समझ आती है और हम उनके लिए कृतज्ञ (Grateful) होना सीखते हैं।
3. आपको ईश्वर के करीब लाने के लिए
यह एक कड़वा लेकिन सच्चा तथ्य है। इंसान सुख में ईश्वर को भूल जाता है। जब सब कुछ अच्छा चल रहा होता है, तो हमें लगता है कि यह सब हमारी काबिलियत से हो रहा है। लेकिन जैसे ही दुख का पहाड़ टूटता है, हमारा अहंकार चूर-चूर हो जाता है और हम असहाय होकर पुकारते हैं – “हे भगवान!”
महाभारत का एक अद्भुत प्रसंग है। युद्ध जीतने के बाद जब भगवान कृष्ण जाने लगे, तो उन्होंने पांडवों की माँ, माता कुंती से कहा, “बुआ, आपने आज तक मुझसे कुछ नहीं मांगा। आज कुछ मांग लीजिए।”
माता कुंती ने जो मांगा, वह सुनकर सब हैरान रह गए। उन्होंने कहा, “हे कृष्ण! अगर देना ही चाहते हो तो मुझे विपत्ति दो, कष्ट दो, दुख दो।”
कृष्ण ने आश्चर्य से पूछा, “बुआ, ये आपको तकलीफ देंगे। आप यह क्यों मांग रही हैं?”
कुंती माता ने उत्तर दिया, “क्योंकि दुख और कष्टों में ही तुम्हारा स्मरण सबसे अधिक होता है, तुम्हारी याद आती है। सुख में तो मैं तुम्हें भूल भी सकती हूँ। मुझे वह सुख नहीं, वही दुख चाहिए जिसमें तुम्हारी याद बनी रहे।”
इसी भाव को एक संत ने क्या खूब कहा है:
“सुख के माथे सिल परै, नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दुक्ख की, पल-पल नाम जपाय॥”
अर्थात, सुख के सिर पर पत्थर पड़े, जिसमें भगवान का नाम ही दिल से चला जाए। मैं तो उस दुख पर बलिहारी जाती हूँ, जो हर पल भगवान का नाम जपने पर मजबूर कर दे।
4. कर्मों का हिसाब बराबर करने के लिए
हमारे शास्त्र बताते हैं कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमारे पिछले कर्म (जाने-अनजाने में किए गए) एक बीज की तरह होते हैं, जिनका फल हमें भोगना ही पड़ता है। दुख अक्सर उन्हीं पुराने कर्मों का फल होता है जो अब पककर सामने आया है। इसे भोग लेने से हमारा हिसाब चुकता होता है और हमारी आत्मा निर्मल होती है। यह एक तरह की आध्यात्मिक सफाई है।
5. यह बताने के लिए कि ‘कुछ बदलने का समय आ गया है’
कई बार दुख एक सिग्नल की तरह काम करता है। यह हमें बताता है कि हम जीवन में जो कर रहे हैं, जिस रास्ते पर चल रहे हैं, या जैसी आदतें अपनाए हुए हैं, वे हमारे लिए सही नहीं हैं। शायद हमें अपनी नौकरी, अपने रिश्ते या अपनी जीवनशैली में किसी बड़े बदलाव की ज़रूरत है। दुख हमें रुककर आत्म-मंथन करने का अवसर देता है।
दुख के अंधेरे से कैसे निकलें? एक कर्मयोगी का दृष्टिकोण
यह समझना कि दुख क्यों आता है, पहला कदम है। अगला कदम है, उसे सही दृष्टिकोण से संभालना।
चिंतन छोड़ें, साक्षी बनें: महर्षि वेद व्यास ने कहा था, “दुख को दूर करने की सबसे अच्छी दवा है, उसका चिंतन छोड़ देना।” आप जितना दुख के बारे में सोचेंगे, वह उतना ही बड़ा और भयावह लगेगा। विचारों से लड़ने की बजाय, उनके साक्षी बनें। उन्हें आने दें और जाने दें।
स्वीकार भाव अपनाएं: जो हो रहा है, उसे स्वीकार करें। लड़ें नहीं। जब हम लड़ते हैं, तो हमारी सारी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। जब हम स्वीकार कर लेते हैं, तो हम समाधान खोजने के लिए अपनी ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं।
कर्मयोगी बनें: जीवन में सुख और दुख धूप और छाँव की तरह हैं। एक कर्मयोगी दोनों में सम रहता है। सुख आए तो उसे भगवान की दया मानें और अहंकार न करें। दुख आए तो उसे भगवान की कृपा मानें, यह सोचकर कि यह आपको कुछ सिखाने और शुद्ध करने आया है।
याद रखें, जीवन एक सीधी सड़क नहीं है। इसमें ढलान (सुख) भी है और चढ़ाई (दुख) भी। आप इन पर कैसे उतरते-चढ़ते हैं, यही आपका जीवन बनाता है। हर दुख को एक सबक और हर सुख को एक आशीर्वाद मानें, तो जीवन में संतुलन और आनंद हमेशा बना रहेगा।
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